यादों के सहारे

घर के किसी कोने में

कुर्सी में बैठे हुए , ‘बूढ़े’

अख़बार, चेहरे के सामने खोले हुए

पढ़ने के लिए नहीं 

सिर्फ , चेहरा ढ़ाँकने के लिए,

लिए हुए देह में,

अनुभव के निशान

और वे जी रहे होते

अपनी यादों के सहारे

22.05.2010  यही तारीख़ दर्ज है मेरी डायरी के पन्ने में जब यह कविता लिखी थी, 17 साल की उम्र में | ज़िंदगी को जीने ,समझने का प्रयास चालू ही किया था उस वक़्त, पर कविता ज़िंदगी के सबसे अंतिम वक़्त पर लिखा डाली | गूगल में सर्च करके,कोई  इमेज़ इस पोस्ट के लिए डाल सकता था पर नहीं डाला |  ताकि आप अपने घर, परिवार, पड़ोस में रह रहे बूढ़ों को जीवंत देखें और उनकी अंतिम यादों के लिए सहारा बनें |

11 thoughts on “यादों के सहारे

  1. priceless writing and sentiments! barring those who lose their respectability by their own deeds we should treat elders tenderly, lovingly because tears of regret are the bitterest ones!

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